बच्चों को संघर्ष व हार को स्वीकारना भी सिखाना होगा
डॉ. गौरव बिस्सा, लाइफ मैनेजमेंट ट्रेनर


‘तुम सर्वश्रेष्ठ हो, महान हो मेरे बच्चे, तुम जो चाहो करो, मेरी तरफ से तुम्हें पूरी छूट है। तुम्हारे जीवन को आसान बनाने के लिए मैं हूं ना। आजकल माता-पिता ये वाक्य अपने बच्चों से कहते हैं। ये अभिभावकों की सकारात्मक सोच और संतान में विश्वास को दर्शाता है। यह परिवर्तन अच्छा है परन्तु इसके साथ ही एक कष्ट भी पनप रहा है। अभिभावकों के ये शब्द बच्चों में अहंकार का बीजारोपण कर उनमें ‘मैं ही महान हूं’ के भाव को भरकर उन्हें स्वार्थी और आलसी बना रहे हैं। अभिभावकों द्वारा बच्चे पर अत्यधिक विश्वास करना, उन्हें सुखार्थी बना रहा है और वे भविष्य के संघर्षों के लिए खुद को तैयार नहीं कर पा रहे। बच्चों को आवश्यकता से अधिक प्यार करना, उनकी हर मांग को पूरा करना, बच्चों को अन्दर से कमजोर बना रहा है। अभिभावकों के लाड़ प्यार से जुड़े बच्चे अपने जीवन के संघर्षों से कतराने लगे हैं। बच्चों को लगता है कि वे चाहे जो भी करें, उनके माता पिता उन्हें सुखी देखने का कोई न कोई मार्ग तलाश ही लेंगे। इसी वजह से वे गलतियों में सुधार नहीं कर रहे, अपितु गलतियों को दोहराए जा रहे हैं, यह स्थिति विस्फोटक है।
बच्चा कुछ मांगे, तो उसे उससे दोगुना देकर यह बताया जा रहा है कि उसके माता पिता बहुत समर्थ हैं। बच्चों को यह सिखाया ही नहीं जा रहा कि नल बंद करना, व्यर्थ बिजली खर्च न करना, भोजन व्यर्थ न करना, धन की बचत करना, महिलाओं के प्रति संवेदनशील रहना आदि भी जीवन मूल्य हैं। अभिभावकों को चाहिए कि वे बच्चों को सिर्फ प्रेरित ही नहीं करें अपितु कठोर सच्चाइयों से भी अवगत करवाएं। उन्हें बताएं कि जीवन उतना सरल नहीं जितना वे समझ रहे हैं। बच्चों के जीवन को इतना भी सरल न बना दें कि वे संघर्ष देखते ही ‘गिव अप’ करने लगें यानी हार मानने लगें।
गर्म आंच पर पकने के बाद भोजन स्वादिष्ट बनता है। अत: बच्चों को भी संघर्षों से तपाया जाना उचित है। अभिभावकों के अत्यधिक प्रेम के कारण बच्चों को लग रहा है कि सिर्फ जीत ही जीवन है। यह गलत सोच है। जितना जरूरी बच्चों को जीतना सिखाना है, उतना ही जरूरी है कि उन्हें संघर्ष के साथ हारना भी सिखाया जाए। उन्हें बताया जाए कि सिर्फ जीत ही नहीं, अपितु हार भी जीवन का अभिन्न अंग है अत: हार की तैयारी करवानी भी आवश्यक है। हार स्वीकार न कर पाने की प्रवृत्ति के कारण बच्चों में मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ रहा है और वे अकेलेपन से ग्रस्त हो रहे हैं।
ज्यादा लाड़ प्यार और अत्यधिक मात्रा में दी गई सुविधा किस तरह से बच्चे को खराब करती है, उसकी बानगी को यूनिवर्सिटी ऑफ टोलेडो के शोध से समझा जा सकता है। विश्वविद्यालय ने शोध के लिए बच्चों के दो समूह बनाए। पहले समूह को चार खिलौने दिए गए। दूसरे समूह को सोलह खिलौने दिए गए। उन्हें खेलने के लिए तीस मिनिट्स का समय दिया गया। आश्चर्यजनक परिणाम यह था कि जिस समूह के पास चार खिलौने थे उन्हें खिलौनों का आकार, फंक्शन और क्रियाविधि अच्छे से समझ आ गई थी। वे बच्चे क्रिएटिव तरीके से खेले और आनंदित हुए। दूसरी ओर जिस समूह के पास सोलह खिलौने थे वे इसी मकडज़ाल में उलझे रहे कि क्या और कैसे खेलें? उन सोलह खिलौनों में से आठ खिलौनों से तो वे खेले ही नहीं और वे आठ खिलौने कोने में पड़े रहे। इससे स्पष्ट हुआ कि बच्चों को आवश्यकता से अधिक खिलौने या सुविधा दी जाए तो उनका मानसिक विकास अवरुद्ध हो सकता है।
बच्चे के हिस्से की सारी चुनौतियां यदि उनके माता पिता ही खत्म कर देंगे तो संतान जीना कैसे सीख सकेगी? गर्मी में बाहर न जाने देना, सर्दी में आवश्यकता से अधिक वस्त्र पहनाना, बच्चा जिस पल जो कहे उसे वह लाकर देना, उससे पूछकर खाना बनाना, उसके दुव्र्यवहार को पराक्रम कहना, उसके दुर्गुणों को प्रेक्टिकल एप्रोच बताना आदि संतान को खराब करने के लिए पर्याप्त हैं।
भारत की एक जनजाति अपनी संतान को जीवन प्रबंध सिखाने के लिए एक अकल्पनीय कार्य करती है। इस जनजाति में संतान को घने जंगल में उसकी आंखों पर पट्टी बांधकर एक पेड़ के तने के पास रात भर के लिए छोड़ दिया जाता है। पट्टी सूर्योदय होने के बाद ही खोली जा सकती है। जनजाति के अनुसार इससे युवाओं का डर निकल जाता है। डर के निकल जाने पर ही बालक संघर्षशील होकर आत्मनिर्भर बन पाता है। ये कठोर प्रशिक्षण का स्वरूप है जिसे परिष्कृत कर आज के समय में अपनाया जाना चाहिए।
माता पिता को चाहिए कि वे बच्चे को प्रेम करने के साथ ही उसके दुव्र्यवहार के लिए उसे लताड़ भी लगाएं। बच्चे को सिखाएं कि संसार सिर्फ एक आनंददायक जगह नहीं है। यहां पर समस्याएं और कष्ट भी होते हैं। बच्चों को अहसास दिलाएं कि उनकी परवरिश करना कितना दुसाध्य कार्य है। वर्तमान समय के बच्चे अपने माता-पिता के अद्भुत त्याग और उनके समर्पण को समझ पाने में नाकाम हैं। बच्चों को यह लगता है कि माता-पिता के श्रम और समर्पण पर तो उनका अधिकार है। माता-पिता अपने बच्चों को यह बताएं कि जिस आनंदित जीवन को वे जी रहे हैं, उसके लिए उन्हें कितना श्रम करना पड़ रहा है? यह भी समझना उचित है कि अत्यधिक मात्रा में दिलाए गए कपड़े, खिलौने, ज्वेलरी, लैपटॉप, मोबाइल फोन इत्यादि के कारण बच्चे इसका महत्त्व ही नहीं समझ रहे। किसी भी वस्तु को या स्टेशनरी को संभालकर या सहेज कर रखना अब बीते दिनों की बात लगती है। बच्चों को यह समझाया जाना आवश्यक है कि धन आसानी से नहीं कमाया जाता।
अच्छी संस्कारवान संतान के लिए अभिभावकों को बच्चे का मूल स्वभाव समझना चाहिए ताकि वे उसे ऊर्जावान और संघर्षशील बना सकें। बच्चे के मूलत: तीन लक्षण होते हैं – त्वरित प्रतिक्रिया देना, इन्द्रियों के अनुसार काम करना और प्रयोगधर्मी व्यक्तित्व होना। त्वरित प्रतिक्रिया का अर्थ है हाजिरजवाबी और तर्क करना। अब बच्चे हर चीज को तर्क की कसौटी पर तोलते हैं। अभिभावकों को चाहिए कि वे तर्क और शोध के साथ बच्चों से बात करें तथा सिर्फ उपदेश न दें। बच्चा प्रयोगधर्मी अर्थात हर चीज से एक्सपेरिमेंट करने वाला होता है। उसे वस्तु के अंदर के रहस्य को जानने की स्वाभाविक इच्छा होती है। ऐसे में अभिभावक अच्छा स्वाध्याय कर बच्चों को समझाएं ताकि वे जीवन के संघर्षों से रूबरू हो सकें। बच्चे को संरक्षण अवश्य दें परन्तु संघर्ष के लिए तैयार भी करें। यही लालन-पालन का गूढ़ सूत्र है।
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