शत-प्रतिशत साक्षर मिजोरम, अन्य राज्यों लिए प्रेरक मॉडल
मिलिंद कुमार शर्मा, प्रोफेसर, एमबीएम यूनिवर्सिटी, जोधपुर


भारत एक विविधताओं से भरा देश है जहां शिक्षा को एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता तो प्राप्त है, लेकिन इसका समान वितरण अब भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। विशेषकर उत्तर-पूर्व भारत जैसे दुर्गम और संवेदनशील क्षेत्रों में, जहां भौगोलिक कठिनाइयां, आर्थिक सीमाएं और सामाजिक अस्थिरताएं व्यापक रूप से व्याप्त हैं, वहां शिक्षा का सार्वभौमिक प्रसार एक कठिन लक्ष्य माना जाता रहा है। ऐसे परिदृश्य में मिजोरम का शत-प्रतिशत साक्षरता प्राप्त करना न केवल उस राज्य की ऐतिहासिक उपलब्धि है, अपितु यह भारत के अन्य राज्यों लिए एक प्रेरक मॉडल भी है। मिजोरम ने यह लक्ष्य एक ऐसे समय में प्राप्त किया है जब उसका पड़ोसी राज्य मणिपुर जातीय संघर्ष, हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा है, और वहां की शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो चुकी है। यह कीर्तिमान मिजोरम राज्य ने केंद्र द्वारा प्रायोजित ‘उल्लास- नव भारत साक्षरता कार्यक्रम’, जिसे न्यू इंडिया लिटरेसी प्रोग्राम (एनआईएलपी) के रूप में भी जाना जाता है, के अंतर्गत प्राप्त किया है। यह कार्यक्रम राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 के साथ संरेखित है तथा इस योजना का उद्देश्य भारत को ‘जन-जन साक्षर’बनाना है। मिजोरम की सफलता को समझने के लिए उसकी सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि पर विचार करना आवश्यक है। यह राज्य म्यांमार और बांग्लादेश की सीमाओं से सटा हुआ एक पर्वतीय क्षेत्र है, जिसकी भौगोलिक स्थिति भारत के अन्य भागों से पृथक है। यहां के जनजातीय समाज ने शिक्षा को केवल सरकारी कार्यक्रमों के सहारे नहीं छोड़ा, अपितु इसे अपने सांस्कृतिक दायित्वों व सामाजिक सेवा के रूप में स्वीकार किया है। वहां सामाजिक सेवा मिजो आचार संहिता ‘त्लावम्नगैहना’ के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसका अर्थ है सभी का दूसरों के प्रति सत्कारशील, दयालु, नि:स्वार्थ और सहायक होना। मिजो समाज ने शिक्षा को एक नैतिक और सामाजिक मूल्य माना जाता है, न कि केवल आजीविका का साधन। यही सोच वहां की शिक्षा नीति और उसके क्रियान्वयन का मूल आधार बनी। मिजोरम में विद्यालय केवल पढ़ाई का केंद्र नहीं होते, बल्कि वे सामाजिक एकजुटता, नैतिक शिक्षा और सामुदायिक जागरूकता के केंद्र बन चुके हैं। यह राज्य इस दृष्टि में भी विशेष है कि वहां शिक्षक का स्थान समाज में अत्यंत सम्मानित है। शिक्षक केवल पाठ पढ़ाने वाले नहीं, बल्कि सामाजिक नेतृत्वकर्ता भी माने जाते हैं। वे बच्चों को मात्र ज्ञान ही नहीं, अपितु नैतिकता, अनुशासन, समाज सेवा और उत्तरदायित्व भी सिखाते हैं। यह सम्मान शिक्षकों को अपने कर्तव्यों के प्रति अधिक प्रतिबद्ध बनाता है और शिक्षा की गुणवत्ता को एक नई गति व ऊंचाई प्रदान करता है। मिजोरम की एक और विशेषता यह है कि वहां शिक्षा को स्थानीय भाषा के साथ-साथ अंग्रेजी में भी सुलभ बनाया गया है। इससे विद्यार्थियों का जड़ों से जुड़ाव बना रहता है, साथ ही वे वैश्विक मंच पर प्रतिस्पर्धा करने के योग्य भी बनते हैं। शिक्षा को भाषायी अवरोध से मुक्त करना वहां की सरकार और समाज दोनों की गहन दूरदर्शिता का परिचायक है। इसी तरह तकनीक के उपयोग और शिक्षा के डिजिटलीकरण के प्रयासों ने भी मिजोरम को आधुनिक शैक्षणिक संरचना की ओर अग्रसर किया है। जहां एक ओर दूसरे उत्तरी-पूर्वी प्रांत मणिपुर में जातीय हिंसा और अस्थिरता ने वहां की शैक्षिक व्यवस्था पर गंभीर प्रतिकूल प्रभाव डाला है, वहीं मिजोरम का शत प्रतिशत साक्षरता के लक्ष्य को प्राप्त करना यह स्पष्ट करता है कि शिक्षा के लिए सबसे पहली आवश्यकता सामाजिक और राजनीतिक शांति व समरसता है। मिजोरम ने वर्ष 1986 में हुए मिजो समझौते के बाद शांति और स्थिरता को प्राथमिकता दी, जिसने उसे शैक्षणिक विकास का मार्ग प्रशस्त करने का अवसर दिया। इस समझौते ने वहां के युवाओं को हिंसा से दूर रखकर शिक्षा की ओर उन्मुख किया और यह परिवर्तन वहां के लिए क्रांतिकारी सिद्ध हुआ प्रतीत होता है। मिजोरम की इस सफलता से भारत के अन्य राज्यों को कई महत्त्वपूर्ण शिक्षा मिलती है। सबसे बड़ी सीख यह है कि शिक्षा केवल सरकारी योजनाओ के भरोसे नहीं चलती, उसके लिए समाज की अनवरत साझेदारी और सहभागिता भी नितांत आवश्यक है। यदि शिक्षा को केवल एक नीति के रूप में लागू किया जाए, तो वह सतही रह जाती है, लेकिन यदि उसे एक सामाजिक आंदोलन का रूप दे दिया जाए, जैसा कि मिजोरम ने किया, तो वह व्यापक और स्थायी रूप लेती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 के उद्देश्यों के संदर्भ में भी मिजोरम का उदाहरण अत्यंत प्रासंगिक है। यह नीति स्थानीय भाषाओं में प्राथमिक शिक्षा, समावेशी ढांचा, डिजिटल तकनीक का समावेश, नैतिक शिक्षा और समुदाय आधारित शिक्षण पद्धतियों को बढ़ावा देती है। वहां की शिक्षा व्यवस्था ने यह सिद्ध कर दिया है कि नीति केवल कागज पर नहीं, बल्कि जमीन पर क्रियान्वित होने पर ही सार्थक परिणाम देती है। यह उल्लेखनीय है कि वहां की ग्रामीण व शहरी क्षेत्र की साक्षरता दर भी लगभग एक समान ही है जो वहां के सामाजिक समावेशी शिक्षा व्यवस्था की ओर ध्यान आकृष्ट करता है। इसके अतिरिक्त महिलाओं की शिक्षा के क्षेत्र में भी मिजोरम ने भी अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया है जो यह दर्शाता है कि जब किसी समाज में लैंगिक समानता को शिक्षा के केंद्र में रखा जाता है, तो समग्र विकास सुनिश्चित होता है। यह सफलता महिला सशक्तीकरण के क्षेत्र में भी एक उल्लेखनीय उपलब्धि है, जो नि:संदेह अन्य राज्यों के लिए भी अनुकरणनीय है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि मिजोरम की शत-प्रतिशत साक्षरता दर केवल एक आंकड़ा मात्र नहीं है, अपितु यह एक गहरी सामाजिक चेतना और प्रतिबद्धता का परिणाम है। यह सिद्ध करता है कि संसाधनों की कमी, भौगोलिक बाधाएं और सीमित राजनीतिक शक्ति के उपरांत भी यदि समाज और सरकार एकजुट होकर शिक्षा को प्राथमिकता दें, तो कोई भी लक्ष्य असंभव नहीं होता। भारत के अन्य राज्यों, विशेष रूप से उत्तर-पूर्व क्षेत्र के, जिनमें मणिपुर भी सम्मिलित है, को मिजोरम से यह सीख लेनी चाहिए कि शिक्षा व्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए सबसे पहले शांति, सामाजिक समरसता और स्थिर नेतृत्व की आवश्यक है। यदि भारत मिजोरम जैसे मॉडल को अपनाकर हर राज्य में समान संकल्प और प्रतिबद्धता से कार्य करे, तो वह दिन दूर नहीं जब संपूर्ण राष्ट्र साक्षरता के शिखर पर होगा।
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