अदालत ने सेवा को माना तनाव और बीमारियों की वजह
मामले की सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति सी. हरीशंकर और न्यायमूर्ति अजय दिग्पॉल की खंडपीठ ने कहा कि जब कोई उम्मीदवार सशस्त्र बलों में भर्ती होता है तो उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति की पूर्ण जांच होती है। यदि वह पूर्णतः स्वस्थ पाया जाता है तो बाद में उत्पन्न होने वाली बीमारियों को उसकी सेवा की परिस्थितियों से जोड़ा जाना चाहिए। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि हाई ब्लड प्रेशर और डायबिटीज जैसी बीमारियां सैन्य सेवा की प्रकृति विशेष रूप से उच्च दबाव और तनाव के परिणामस्वरूप उत्पन्न हो सकती हैं।
केंद्र और वायुसेना की आपत्तियों को किया खारिज
इस मामले में वायुसेना के ग्रुप कैप्टन गिरीश कुमार जौहरी ने सशस्त्र बल न्यायाधिकरण (AFT) में याचिका दायर कर दिव्यांगता पेंशन की मांग की थी। AFT ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया था। लेकिन केंद्र सरकार और वायुसेना ने इस फैसले को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी और AFT के आदेश को बरकरार रखा। ग्रुप कैप्टन ने अपनी याचिका में बताया था कि उन्हें नौकरी के दौरान ही हाई ब्लड प्रेशर और डायबिटीज टाइप-II हो गई थी। इस तथ्य को मानते हुए सशस्त्र बल न्यायाधिकरण (AFT) ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया था।
कोर्ट ने 1996 से पेंशन और ब्याज देने का दिया आदेश
दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार को यह भी आदेश दिया है कि वह गिरीश कुमार जौहरी को साल 1996 में ये बीमारियां हुईं। इसलिए साल 1996 से उनके जीवनकाल तक उन्हें दिव्यांगता पेंशन दी जाए। यह पेंशन मूल वेतन के 50 प्रतिशत के बराबर होगी और इसे उनकी रिटायरमेंट पेंशन के अतिरिक्त माना जाएगा। साथ ही कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया कि वह 1996 से अब तक की बकाया राशि पर 6 प्रतिशत सालाना ब्याज भी चुकाए। यह पूरी राशि तीन महीने के भीतर जारी करने के आदेश दिए गए हैं।
सशस्त्र बलों में सेवा करने वालों के लिए उम्मीद की किरण
दिल्ली हाईकोर्ट का यह फैसला सशस्त्र बलों के उन अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए उम्मीद की नई किरण है, जो सेवा के दौरान उत्पन्न होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं से जूझते हैं। यह निर्णय स्पष्ट करता है कि सैन्य सेवा के तनावपूर्ण वातावरण में उत्पन्न बीमारियों को भी सेवा से जुड़ी दिव्यांगता माना जा सकता है, और इसके आधार पर दिव्यांगता पेंशन प्राप्त की जा सकती है। यह ऐतिहासिक निर्णय सशस्त्र बलों में कार्यरत और सेवानिवृत्त अधिकारियों के लिए न केवल आर्थिक सहायता का मार्ग प्रशस्त करता है, बल्कि उनके मानसिक और शारीरिक संघर्षों की भी न्यायपूर्ण स्वीकार्यता है।