CG Culture: बस्तर में मुर्गा लड़ाई का खेल, लाखों का लगता है दाव, पैरों में बांधे जाते है नुकीले हथियार,जानें पूरी कहानी
CG Culture: हर सप्ताह लगने वाले हाट-बाजारों में जब दो मुर्गे आमने-सामने होते हैं, तो सैकड़ों आँखें उस रोमांचक क्षण का हिस्सा बनती हैं। यह सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि बस्तर की जीवंत विरासत का प्रतीक है।
CG Culture: छत्तीसगढ़ का बस्तर क्षेत्र अपनी गूढ़ आदिवासी संस्कृति, प्राचीन परंपराओं और नैसर्गिक सौंदर्य के लिए विशेष पहचान रखता है। घने जंगलों, झरनों और पहाड़ियों से सजे इस अंचल में जीवन आज भी प्रकृति की लय के साथ बहता है। बस्तर न केवल लोककला और रीति-रिवाजों का धरोहर स्थल है, बल्कि यहाँ की अनोखी परंपराएँ, जैसे कि मुर्गा लड़ाई, स्थानीय जीवन का अहम हिस्सा हैं।
यह पारंपरिक खेल न केवल मनोरंजन का माध्यम है, बल्कि लोगों की सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना से भी जुड़ा हुआ है। हर सप्ताह लगने वाले हाट-बाजारों में जब दो मुर्गे आमने-सामने होते हैं, तो सैकड़ों आँखें उस रोमांचक क्षण का हिस्सा बनती हैं। यह सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि बस्तर की जीवंत विरासत का प्रतीक है। हालांकि यह परंपरा वर्षों पुरानी है, लेकिन आधुनिक समय में भी इसका आकर्षण कम नहीं हुआ है। स्थानीय लोगों के लिए यह खेल मनोरंजन का ज़रिया है, वहीं पर्यटकों के लिए यह बस्तर की सांस्कृतिक झलक का हिस्सा बन चुका है।
बस्तर के जानकारों का कहना है कि मुर्गा लड़ाई सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि यह इस क्षेत्र की परंपरा, साहस और उत्सवधर्मिता का प्रतीक है। हालांकि समय के साथ कई परंपराएँ समाप्त होती जा रही हैं, लेकिन मुर्गा लड़ाई आज भी बस्तर में जीवित परंपरा का उदाहरण बनी हुई है। यह न केवल स्थानीय लोगों के लिए उत्सव का हिस्सा है, बल्कि बाहरी पर्यटकों के लिए भी बस्तर की सांस्कृतिक विविधता का परिचय देती है।
लाखों करोड़ो के लगते है दाव मुर्गा लड़ाई के लिए बाजार स्थल में ही गोल घेरा लगाकर बाड़ी बनाई जाती है. जिससे लड़ाये जाने वाले दोनों मुर्गो के एक-एक पैर में तेज धार वाला हथियार काती बांध दिया जाता है। जिस मुर्गे का हथियार काती उसके विपरीत वाले मुर्गे को पहले मार के डराने में सफल होता है, वह मुर्गा जीत जाता है। इस खेल में लोग बहुत पैसा लगाते हैं। जीतने वाले को दोगुना या तीगुना मिलता है।
चाहे आज आधुनिक युग में टीवी, सीडी, मोबाइल उपलब्ध हो गया है, लेकिन ग्रामीण मुर्गा लड़ाई में भी विशेष रूचि दिखाते हैं। इस तरह की मुर्गा लड़ाई बस्तर के अलावा आंध्रप्रदेश, ओडिसा और अन्य जगहों में भी बहुत ज्यादा प्रचलित है. मुर्गा लड़ाई लगभग दोपहर को प्रारंभ होने के बाद देर शाम तक जारी रहती है. इस दौरान सैकड़ों लोग इस पर दांव खेलते है।
दो मुर्गा आपस में होती है लड़ाई दो मुर्गा को आपस में लड़ाने से पहले दोनो मुर्गा में तीखी धार वाले ब्लेड बांधे जाते हैं। जिन्हें काती कहा जाता है। इसे बांधने वाले जानकार को मेहनताना भी दिया जाता हैं. इसके बाद इन्हें आपस में लड़ाया जाता है। इन मुर्गों को रंगों के आधार पर कबरी, चितरी, जोधरी, लाली आदि नामों से बुलाया जाता है। मुर्गा लड़ाई के शौकीन ग्रामीण बड़े शौक से मुर्गा पालते हैं. मुर्गों का असील प्रजाति खासकर आंध्र प्रदेश और बस्तर के सीमावर्ती क्षेत्र में पाई जाती है।
क्या होती है बस्तर की मुर्गा लड़ाई?पारंपरिक मनोरंजन और संस्कृति का हिस्सा आदिवासी क्षेत्र में साप्ताहिक हाट‑बाजारों में यह लड़ाई जन सामान्य का मनोरंजन बनी हुई है। असील नस्ल के मुर्गे
मुख्यतः गेलस डोमेस्टिकस यानी असील नस्ल के लड़ाकू मुर्गों का प्रयोग होता है। लड़ने की जगह और हथियार लड़ाई एक रिंग (अखाड़ा/घेरा) में होती है। मुर्गों के पैरों में “काती” नामक धारदार ब्लेड बांधा जाता है, जिससे लड़ाई बेहद खूनी होती है।
लड़ाई कब खत्म होती है? तब तक जारी रहती है जब तक एक मुर्गा या तो मर जाता है या हार मान लेता है।
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